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अ॒भ्रा॒तरो॒ न योष॑णो॒ व्यन्तः॑ पति॒रिपो॒ न जन॑यो दु॒रेवाः॑। पा॒पासः॒ सन्तो॑ अनृ॒ता अ॑स॒त्या इ॒दं प॒दम॑जनता गभी॒रम् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhrātaro na yoṣaṇo vyantaḥ patiripo na janayo durevāḥ | pāpāsaḥ santo anṛtā asatyā idam padam ajanatā gabhīram ||

पद पाठ

अ॒भ्रा॒त॑रः। न। योष॑णः। व्यन्तः॑। प॒ति॒ऽरिपः॑। न। जन॑यः। दुः॒ऽएवाः॑। पा॒पासः॑। सन्तः॑। अ॒नृ॒ताः। अ॒स॒त्याः। इ॒दम्। प॒दम्। अ॒ज॒न॒त॒। ग॒भी॒रम्॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:5» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजविषय में दण्ड विचार को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अनृताः) मिथ्या बोलने और (असत्याः) मिथ्या आचरण करनेवाले (दुरेवाः) दुष्ट व्यसनों से युक्त (पापासः) अधर्माचरण करते (सन्तः) हुए दुष्ट (अभ्रातरः) जैसे बन्धुभिन्न जन (नः) वैसे और जैसे (योषणः) स्त्रियाँ (पतिरिपः) पति की भूमि को (न) वैसे (व्यन्तः) प्राप्त हुईं (जनयः) स्त्रियाँ (इदम्) इस (गभीरम्) गम्भीर (पदम्) स्थान दुःख को (अजनत) उत्पन्न करती हैं, वे सदा ही ताड़न करने योग्य हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो स्त्री भाई के सदृश अनुकूल नहीं और जो अनुकूल हो तो शत्रु के सदृश विरोध करनेवाली हो और जो घोर पापीजन सब के पीड़ा देनेवाले हों, उनका दूर से त्याग करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषये दण्डविचारमाह ॥

अन्वय:

येऽनृता असत्या दुरेवाः पापासस्सन्तो दुष्टा अभ्रातरो न योषणः पतिरिपो न व्यन्तो जनय इदं गभीरं पदं दुःखमजनत ते सदैव ताडनीयाः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभ्रातरः) अबन्धुरिव वर्त्तमानाः (न) इव (योषणः) भार्य्याः (व्यन्तः) प्राप्नुवन्त्यः (पतिरिपः) पत्युर्भूमीः। रिप इति पृथ्वीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (न) इव (जनयः) जायाः (दुरेवाः) दुर्व्यसनाः (पापासः) अधर्माचाराः (सन्तः) (अनृताः) असत्यवादिनः (असत्याः) असत्याचरणाः (इदम्) (पदम्) (अजनत) जनयन्ति। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गभीरम्) गहनम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। [हे] मनुष्या ! या स्त्री भ्रातृवदनुकूला नानुकूला शत्रुवद्विरोधिनी ये घोरपापिनः सर्वेषां पीडकाः स्युस्तान् दूरतस्त्यजत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जी स्त्री बंधूसारखी अनुकूल नसेल व शत्रूप्रमाणे विरोध करणारी असेल व जे अत्यंत पापी लोक सर्वांना त्रास देणारे असतील तर त्यांचा त्याग करा. ॥ ५ ॥